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Rahul Gandhi लाए जनगणना का नया फ़ॉर्मूला जिसकी जितनी संख्या उसका उतना हिस्सा!

राहुल गांधी आरक्षण का एक नया फ़ॉर्मूला सुझा रहे हैं। अगर यह चल गया तो विश्वनाथ प्रताप सिंह के बाद अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) ख़ेमे में फिर से एक तरह का मोह पैदा होगा और अन्य जातियाँ हो सकता है इससे दुखी हों। राहुल ने सुझाया है कि सरकार 2011 की जनगणना के आँकड़े उजागर करे और जो जाति जितनी संख्या में है, आरक्षण में उसकी उतनी भागीदारी तय की जाए।
फ़िलहाल सामान्य तौर पर ओबीसी को 27, अनुसूचित जाति को 15 और जनजाति को साढ़े सात प्रतिशत आरक्षण हासिल है। कुछ राज्य इसे अपने हिसाब से कम या ज़्यादा करते रहते हैं। ख़ासकर, ओबीसी वाले हिस्से को। कुछ राज्य इसे इसी तरह लागू करते हैं।

ज़ाहिर है देश में सर्वाधिक संख्या पिछड़ा वर्ग की ही है। इसलिए जातीय जनगणना के हिसाब से देखा जाए तो हर हाल में आरक्षण में इस वर्ग को अपनी भागीदारी निश्चित रूप से बढ़ने की उम्मीद होगी। राहुल गांधी का यह फ़ॉर्मूला एक तरह की राजनीतिक चतुराई कही जा सकती है। इसमें राज्यों की छोटी-छोटी राजनीतिक पार्टियों के लिए बड़ा फ़ायदा छिपा हुआ है।

अगर कांग्रेस और बाक़ी छोटे दल एकमत होकर लड़ेंगे तो इसका उन्हें फ़ायदा हो सकता है। ये बात और है कि कई राज्य ऐसे भी हैं जहां के चुनावों में भाजपा की प्रचंड जीत ने तमाम जातीय गणितों को किनारे कर दिया है। यहाँ मोदी-मोदी के अलावा किसी भी तरह का गणित दूसरी पार्टियों के काम नहीं आ सका।

ख़ैर, फ़िलहाल केवल पाँसा फेंका गया है, इसका स्वरूप कितने बड़े स्तर पर सामने आएगा, यह अभी कहा नहीं जा सकता। अगर वीपी सिंह के जमाने की तरह आरक्षण पाने या उसके विरोध में या दोनों तरह के आंदोलन शुरू हो जाते हैं तो हो सकता है चुनावी राजनीति की दिशा में कोई नया ही मोड़ आ जाए!

अभी यह तो तय माना जा रहा है कि सपा- बसपा, जद यू, राजद जैसे छोटे राजनीतिक दल इस फ़ॉर्मूले पर गहन मंथन ज़रूर करेंगे और इसे लागू करवाने के लिए वे अपने स्तर पर जो कुछ कर सकते हैं, वह भी अवश्य करेंगे। हालाँकि फ़िलहाल तो जातीय जनगणना पर भी कई विशेषज्ञों के अलग-अलग मत हैं।

कोई कहता है कि इस तरह की जनगणना से वर्ग संघर्ष को प्रश्रय मिल सकता है जबकि किसी का कहना यह भी है कि जातीय जनगणना में, इन जातियों के लिए न्याय की भावना छिपी हुई है। देखना यह है कि राहुल गांधी के फ़ॉर्मूले को विभिन्न जातियाँ और ख़ासकर, इनके रहनुमा यानी छोटे राजनीतिक दल कितनी गंभीरता से लेते हैं।